लेखनी कविता -होली के ठाठ - बालस्वरूप राही
होली के ठाठ / बालस्वरूप राही
सब पर्वों में, त्योहारों में
होली के ठाठ निराले है।
नीला पीले से बोल उठा-
आओ, हम दोनों मिल जाएँ,
रह जाए कहीं न फीकापन
बन कर हरियाली खिल जाएँ।
उतरा धरती पर इंद्र्धनुष,
सब उस की डोर सँभाले हैं।
टेसू के फूल घुले जल में
हो गया रंग तैयार नया,
फिर भिगो दिया जा कर उस को
जो जरा देर को सुख गया।
सर्दी तक हुई गुलाबी है
यों रंग हवा ने डाले हैं।
कल जिस से कर आए कुट्टी,
हो गई आज उस से अब्बा,
फिर रहे हाथ में लिए हुए
डब्बू गुलाल वाला डब्बा।
कीचड़ से बच कर निकल गए
दब्बू जी इज्जत वाले हैं।